20 मार्च,1927 को आंबेडकर और उनके अनुयायियों ने महाराष्ट्र के कोलाबा ज़िले के महाड़ में स्थित चावदार तालाब तक एक जुलूस निकाला था. वो लोग छुआछूत के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे.

हज़ारों की संख्या में अछूत कहे जाने वाले लोगों ने आंबेडकर की अगुवाई में चावदार के एक सार्वजनिक तालाब से पानी पिया. सबसे पहले डॉक्टर आंबेडकर ने चुल्लू से पानी पिया और फिर उनका अनुकरण करते हुए उनके हज़ारों अनुयायियों ने पानी पिया.

उस समय आंबेडकर ने वहाँ मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए कहा था, “क्या हम इसलिए यहाँ आए हैं कि हमें पीने के लिए पानी नहीं मिलता है? क्या हम यहाँ इसलिए आए हैं कि यहाँ के ज़ायक़ेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं? बिल्कुल नहीं. हम यहाँ इसलिए आए हैं कि हम इंसान होने का अपना हक़ जता सकें.”

ये एक प्रतीकात्मक विरोध था जिसके ज़रिए हज़ारों साल पुरानी सवर्ण और सामंती सत्ता को चुनौती दी गई थी जो सामाजिक पायदान के सबसे निचले स्तर के लोगों को वो हक़ भी देने के लिए तैयार नहीं थे जो जानवरों तक को हासिल था.

इसकी दूसरी जातियों पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी. उच्च जाति के लोगों ने इसका बदला लिया और अछूतों की बस्ती में जाकर ज़बर्दस्त तांडव मचाया था.

हाल में प्रकाशित आंबेडकर की जीवनी ‘अ पार्ट अपार्ट द लाइफ़ एंड थॉट्स ऑफ़ बीआर आंबेडकर’ में अशोक गोपाल लिखते हैं, “सवर्ण हिंदुओं ने बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को बुरी तरह से पीटा.”

”इस तरह की भी अफ़वाहें थीं कि अछूत लोग शहर के वीरेश्वर मंदिर में घुसने की योजना बना रहे हैं. आंबेडकर के इस विरोध के एक दिन बाद 21 मार्च, 1927 को सनातनी हिंदुओं ने चावदार तालाब के पानी का ‘शुद्धिकरण’ किया था.

विनायक दामोदर सावरकर ने किया महाड़ आंदोलन का समर्थन

इस तरह की अनेक घटनाओं ने जाति के प्रति बाबा साहब की सोच को बदल कर रख दिया. विनायक दामोदर सावरकर ने आंबेडकर के महाड़ सत्याग्रह को बिना शर्त समर्थन दिया था.

धनंजय कीर सावरकर की जीवनी ‘सावरकर एंड हिज़ टाइम्स’ में लिखते हैं, “उस समय उन्होंने कहा था कि छुआछूत की न सिर्फ़ निंदा की जानी चाहिए बल्कि अब उसे धर्म के आदेश के तौर पर जड़ से समाप्त करने का समय आ पहुंचा है. ये नीति या औचित्य का सवाल नहीं है बल्कि न्याय और मानवता की सेवा के मुद्दे भी इससे जुड़े हुए हैं.”

“सावरकर ने घोषणा की कि हर हिंदू का ये पवित्र कर्तव्य है कि वो अपना धर्म मानने वाले लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा करे. अपने आप को किसी पशु के मूत्र से पवित्र करना, मानवमात्र के स्पर्श भर से अपवित्र हो जाने की अवधारणा से कहीं अधिक हास्यास्पद और निंदनीय कुछ नहीं है.”

आंबेडकर और सावरकर की सोच में फ़र्क़

हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘अ पार्ट अपार्ट द लाइफ़ एंड थॉट ऑफ़ बीआर आंबेडकर’ के लेखक अशोक गोपाल कहते हैं, “आंबेडकर का मानना था कि अगर सावरकर को हिंदू राष्ट्र बनाने का अपना लक्ष्य प्राप्त करना है तो उन्हें अछूतों और बाक़ी के हिंदू समाज के बीच अवरोध को तोड़ना होगा.”

सावरकर ने जनवरी, 1924 में जेल से रिहा होने के बाद इस दिशा में कुछ काम ज़रूर किया क्योंकि रत्नागिरि ज़िले में उनको ग़ैर-राजनीतिक काम करने की ही छूट दी गई थी.

उन्होंने अछूतों को मंदिर में घुसवाने और सभी जातियों के लोगों के एक साथ खाना खाने का अभियान भी शुरू किया.

इस तरह के उदाहरण देकर सावरकर के जीवनीकार धनंजय कीर ने ये बताने की कोशिश की है कि आंबेडकर और सावरकर दोनों ही हिंदू समाज को सुधारने का काम कर रहे थे.

अशोक गोपाल आगे लिखते हैं, “धनंजय कीर ने 18 फ़रवरी, 1933 को आंबेडकर के सावरकर को लिखे पत्र का ज़िक्र भी किया. ये पत्र सावरकर की पहल पर रत्नागिरि में एक धनी व्यापारी द्वारा पतित पावन मंदिर बनाए जाने के बाद लिखा गया था. इस मंदिर में अछूतों को पूजा करने की छूट थी. उन्होंने एक ऐसे ही मंदिर के उद्घाटन समारोह में भाग लेने के लिए आंबेडकर को आमंत्रित किया.”

आंबेडकर अपनी व्यस्तता का बहाना बनाकर इस समारोह में नहीं गए, लेकिन उन्होंने सावरकर से कहा, “लेकिन मैं इस मौक़े पर सामाजिक सुधारों के लिए काम करने की मुहिम शुरू करने के लिए आपकी तारीफ़ करना चाहता हूँ.”

चतुरवर्ण व्यवस्था पर सावरकर से मतभेद 

‘बहिष्कृत भारत’ के 12 अप्रैल, 1929 के अंक में लिखा संपादकीय बताता है कि आंबेडकर ने पहले पतित पावन मंदिर बनने की शुरुआत में ही इसका विरोध किया था. उनका मानना था कि बाद में ये मंदिर अछूतों के मंदिर कहलाए जाने लगेंगे.

नवंबर 1930 से मार्च 1931 तक ‘केसरी’ में छपे अपने लेखों में सावरकर ने स्पष्ट कर दिया था कि वो जातिवाद का तो विरोध करते हैं, लेकिन चतुर्वर्ण व्यवस्था के विरोधी नहीं हैं. आंबेडकर सावरकर के इन विचारों को जानते थे.

उन्होंने 18 फ़रवरी 1933 को सावरकर को भेजे पत्र में लिखा था, “आपका अभी भी ‘चतुर्वर्ण’ शब्द का यह कर वकालत करना कि ये योग्यता पर आधारित है, दुर्भाग्यपूर्ण है. हालांकि मुझे उम्मीद है कि आने वाले समय में आपमें इस ग़ैर-ज़रूरी और शरारतपूर्ण शब्दजाल से छुटकारा पाने की हिम्मत आ जाएगी.”

अशोक गोपाल लिखते हैं कि सावरकर ने ऐसा करने की मंशा नहीं जताई और उसके बाद से सुधार प्रयासों में आंबेडकर की दिलचस्पी कम होती चली गई.

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बचपन में भी आंबेडकर को होना पड़ा था छुआछूत का शिकार

भीमराव आंबेडकर के पिता सेना में थे और कोरेगाँव में तैनात थे. उन्होंने भीमराव, उनके भाई और बहन के बच्चों को मिलने के लिए कोरेगाँव आमंत्रित किया. लेकिन उन तक ये ख़बर नहीं पहुंच सकी कि वो किस ट्रेन से कोरेगाँव पहुंच रहे हैं, इसलिए उन्हें लेने कोई भी स्टेशन नहीं पहुंचा.

स्टेशन मास्टर ने उनसे पूछा कि आप कौन हैं और कहाँ जाना चाहते हैं. जैसे ही उसे पता चला कि वो सब महार हैं वो बिदक कर पीछे जा खड़ा हुआ. बड़ी मुश्किल से एक बैलगाड़ी बुलाई गई. रास्ते में बैलगाड़ी वाले को बातचीत के दौरान पता चल गया कि वो सब महार हैं.

सावित्री आंबेडकर अपनी किताब ‘माई लाइफ़ विद डॉक्टर आंबेडकर’ में लिखती हैं, “बैलगाड़ी वाले ने उन सब को तुरंत गाड़ी से नीचे उतार दिया. तब तक अंधेरा हो चुका था. जब बच्चों ने उसे दोगुना किराया देने का लालच दिया तब जाकर वो गाड़ी चलाने के लिए तैयार हुआ.”

”उसकी शर्त थी कि बच्चे गाड़ी चलाएंगे और वो उनके पीछे पैदल चलेगा. गर्मी का मौसम था सारे बच्चे बुरी तरह से प्यासे थे, लेकिन रास्ते में किसी ने उन्हें पानी तक नहीं दिया. वो सब अगले दिन अर्धमृत अवस्था में अपने पिता के घर पहुंचे.”

 

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